(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) क्यों है मुश्किल में चांगपा समुदाय? (Why is the Changpa Community in Trouble?)
आये दिन भारत चीन सीमा पर चीनी और भारतीय सैनकों का विवाद समाचार की सुर्खियां बटोरता है. हाल ही में आयी एक खबर के मुताबिक़ भारतीय सेनाओं ने भी सीमा पर अपने लाव लश्कर को तैनात कर दिया था .इस तनाव से लद्दाख से सटे क्षेत्र सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं . लेकिन सबसे ज़्यादा असर यहां के आम जनजीवन पर हुआ है ....
लद्दाख के चुमूर (Chumur) और डेमचोक (देमचोक) इलाके में चीनी सेना की घुसपैठ का असर सबसे ज़्यादा देखा जा रहा है....यहां चीनी सेना की लगातार मौजूदगी ने लद्दाख के खानाबदोश चरवाहों के समुदाय जिसे चांगपा के नाम से जाना जाता है को यहाँ के हरे भरे चारागाहों के बड़े हिस्से से दूर कर दिया है। इस सबका बुरा असर इस समुदाय के बकरी पालन व्यवसाय पर पड़ रहा है।
आज के DNS में जानेंगे चांगपा समुदाय के बारे में और इनसे जुडी तकलीफों से भी रूबरू कराएंगे
चांगपा आदिवासी समुदाय, जो मुख्य रूप से जम्मू और कश्मीर के विभिन्न हिस्सों में बसे हुए हैं, पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में अनुसूचित जनजातियों में से एक है। चांगपा जनजाति खानाबदोश जीवन पसंद करते हैं। जम्मू और कश्मीर राज्य में, इस चंगपा आदिवासी समुदाय की प्रमुख एकाग्रता लद्दाख पर्वतमाला में चांगथांग पठार जैसे कई स्थानों पर पाई जाती है...
चीन की ‘पीपुल्स लिबरेशन आर्मी’( People’s Liberation Army) द्वारा चुमूर में 16 कनाल (दो एकड़) की कृषि योग्य भूमि पर कब्ज़ा कर लिया गया है जो डेमचोक क्षेत्र के अंदर लगभग 15 किमी. की दूरी पर स्थित है।
यह एक पारंपरिक चराई वाले चरागाहों और खेती योग्य भूमि वाला क्षेत्र है।
इसका प्रतिकूल प्रभाव लद्दाख के चांगथांग पठार (Changthang Plateau) के कोरज़ोक-चुमूर बेल्ट (Korzok-Chumur Belt) में नवज़ात पश्मीना बकरियों की संख्या पर देखा जा रहा है।
पर्याप्त चरागाहों के अभाव में युवा पश्मीना बकरियों की मौतों में वृद्धि देखी गई है जिसमें पश्मीना बकरियों के साथ-साथ याक भी शामिल हैं।
चांगपा समुदाय के लोगों का मानना है कि इस तरह की गतिविधियों के चलते इस वर्ष (वर्ष 2020 में) 70-80% नवज़ात पश्मीना बकरियों को जीवित रख पाना मुश्किल हो रहा है।
चीनी सेना द्वारा इन चरागाह क्षेत्रों पर सतर्कता बनाए रखने के लिये हेलीकॉप्टरों द्वारा निगरानी की जा रही है।
चांगपा आदिवासी समुदाय का मुख्य व्यवसाय पशुपालन है। कई अन्य आदिवासी समुदायों की तरह, इस चांगपा आदिवासी समुदाय ने भी खुद की खेती है। चांगपा जनजाति ज्यादातर जौ की खेती करती है। चांगपा जनजातियों के काफी मुट्ठी भर लोग हैं जो छोटे व्यापारिक गतिविधियों को भी कर रहे हैं। इनमें से कुछ चांगपा जनजातियाँ रूपशू क्षेत्र में सोजोकर झील के उत्तरी किनारे से भी नमक इकट्ठा करती हैं और लद्दाख क्षेत्र में भी बेचती हैं। नृविज्ञानियों के अनुसार, इन चांगपा जनजातियों को पहाड़ियों की ढलानों पर मवेशी और पश्मीना बकरियों के झुंड भी दिखाई देते हैं।
जम्मू और कश्मीर का यह आदिवासी समुदाय सुंदर टेंट में रहना पसंद करता है जो याक और बकरियों के बालों से तैयार होते हैं। कई आदिवासी समुदायों की तरह, यह चांगपा आदिवासी समुदाय भी धर्म और आध्यात्मिक विश्वासों और रीति-रिवाजों के प्रति व्यापक रूप से उन्मुख है।
हालाँकि, इन चांगपा जनजातियों ने अभी भी स्थानीय धार्मिक संस्कारों और रीति-रिवाजों का पालन करने की अपनी विरासत को बरकरार रखा है। साथ ही चांगपा आदिवासी समाज में भी स्थानीय देवी-देवताओं की कोई कमी नहीं है। इस चांगपा आदिवासी समुदाय के कई सदस्य हैं जो बौद्ध धर्म जैसे अन्य धर्म में परिवर्तित हो गए हैं। कुछ मानवशास्त्रियों के अनुसार, बहुत कम मुसलमान ऐसे भी हैं जो रमजान और ईद का त्योहार बहुत श्रद्धा से मनाते हैं। जम्मू और कश्मीर घाटी के अलावा, इस चांगपा आदिवासी समुदाय के कई लोग भारत के अन्य स्थानों में भी पाए जाते हैं।
चुशूल-डेमचोक-चुमूर बेल्ट (Chushol-Demchok-Chumur belt):
यह पश्मीना बकरियों की अधिकतम आबादी वाला क्षेत्र है, जो 13,000 फीट से अधिक ऊँचाई पर स्थित है,....लद्दाख में सालाना 45-50 टन बेहतरीन किस्म की ऊन का उत्पादन होता है जिसमें से 25 से 30 टन ऊन का उत्पादन चुशूल-डेमचोक-चुमूर बेल्ट में होता है।
इस इलाके में चीनी सेना के बढ़ते दखल ने इलाके में पैदा होने वाले पश्मीना ऊन के कारोबार पर बुरी तरह असर डाला है यही नहीं इलाके के चरवाहों की रोज़ी रोटी पर भी बुरा असर पड़ा है